नजरिया....!
राजा भोज एक बार जंगल में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए वह अपने सैनिकों से बिछुड़ गए. वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे.
तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर लकड़ियों का गठ्ठर उठाए वहां से गुजरा.
लकड़हारा अपनी धुन में चला जा रहा था.
उसकी नजर राजा भोज पर पड़ी. एक पल के लिए रुका. उसने राजा को गौर से देखा फिर अपने रास्ते पर बढ़ गया.
राजा को लकड़हारे के व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ. लकड़हारे ने न उन्हें प्रणाम किया, न ही उनकी सेवा में आया.
उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ‘तुम कौन हो?’
लकड़हारे ने जवाब दिया, ‘मैं अपने मन का राजा हूं.’
राजा ने पूछा, ‘अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी. कितना कमाते हो?’
लकड़हारे ने जवाब दिया, ‘मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं.’
भोज की दिलचस्पी बढ़ रही थी. उन्होंने पूछा, ‘तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’
लकड़हारा बोला, ‘मैं रोज एक मुद्रा अपने ऋणदाता यानी मेरे माता-पिता को देता हूं.
उन्होंने मुझे पाला-पोसा है, मेरे लिए हर कष्ट सहा है.
दूसरी मुद्रा अपने ग्राहक आसामी यानी अपने बच्चों को देता हूं. मैं उन्हें यह ऋण इसलिए दे रहा हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वे मुझे यह ऋण वापस लौटाएं.’
तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं, वह है मेरी पत्नी. अच्छा मंत्री वह होता है जो राजा को उचित सलाह दे, हर सुख-दुख में उसका साथ दे. पत्नी से अच्छा साथी मंत्री कौन हो सकता है!
चौथी मुद्रा मैं राज्य के खजाने में देता हूं. पांचवीं मुद्रा का उपयोग मैं अपने खाने-पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं कड़ी मेहनत करता हूं.
छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है. अतिथि सत्कार हमारा परम धर्म है.’
एक लकड़हारे से ज्ञान की ऐसी बातें सुनकर राजा हक्के-बक्के रह गए.
राजा भोज सोचने लगे, ‘मेरे पास तो लाखों मुद्राएं है पर मैं जीवन के आनंद से वंचित हूं. छह मुद्राएं कमाने वाला लकड़हारा जीवन की शिक्षा का पालन करता अपना वर्तमान और भविष्य दोनों सुखद बना रहा है.’
राजा इसी उधेड़बुन में थे. लकड़हारा जाने लगा. वह लौटकर आया. उसने राजा भोज को प्रणाम किया और बोला, ‘मैं आपको पहचान गया था कि आप राजा भोज हैं. पर मुझे उससे क्या लेना-देना?
अपने जीवन से मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं इसलिए अपना राजा तो मैं स्वयं हूं.’ जाते-जाते उसने भोज को कई और सबक दे दिए थे.
नजरियाः हमारे जीवन का एक बड़ा भाग सोने में निकल जाता है. उसके बाद का सबसे बड़ा भाग आजीविका जुटाने में. आज की दृष्टि इसी बात पर कि आजीविका आखिर है क्या?
एक तरफ राजा भोज हैं जिनके पास अनंत स्वर्ण मुद्राएं हैं. जिन्हें राज्य की चिंता, अपने परिजनों की चिंता करनी है लेकिन उलझनों में फंसे है.
राजा हैं तो राजा होने का अभिमान भी है. सभी के द्वारा उनकी वंदना हो इसकी भी इच्छा रखते हैं. कैसे सब पर नियंत्रण बनाए रखा जाए, इसकी चिंता अलग.
दूसरी तरफ वह लकड़हारा जो अपनी मेहनत से रोज की छह स्वर्ण मुद्राएं कमाता है. उसमें से कहां और कितना खर्चना है, यह तय कर रखा है. किसी मारामारी में नहीं है.
जीवन सुकून से चल रहा है. सिर्फ सुकून ही क्यों वह अपनी, अपने परिवार की और अपने देश तक की चिंता करता हुआ सुखी है.
इच्छाओं का कहीं अंत है क्या? एक के बाद दूसरी पैदा होगी. एक आत्मअनुशासन रखिए. अपने बच्चों के सामने कभी बड़ी-बड़ी इच्छाओं और उसे पूरी करने के लिए कर रहे प्रपंचों की चर्चा न होने दें.
एक असंतुष्ट मन विवेकपूर्ण निर्णय नहीं कर पाता. अपनी जरूरतों की हमें एक रेखा खींच लेनी चाहिए.
जीवन सुखमय होगा यदि हम राजा भोज की बजाय लकड़हारे बनने का प्रयास करेंगे. मन का राजा होता है. मन के राजा के सामने सभी गुलाम होते हैं.
कबीरदास जी ने कितनी सुंदर बात लिखी है-
चाह मिटी चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह !
उनको कुछ नहीं चाहिए, जो शाहन के शाह !!
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