कभी कोयला पर पका, खाया और फिर फेंका हुआ भुट्टा जो हमारे यहाँ लेढ़ा होता है उसे देखा है आपने?निश्चित देखा होगा क्योंकि यह सहज ही कहीं भी रोड के किनारे, घर के टीन या छत पर बहिष्कृत मिल जाता है। हमारे शिष्ट समाज में फेंका हुआ भुट्टा अलावन के अलावे और किसी काम का नहीं होता।प्रकृति भी इस भुट्टे को अपनी यातना की अनंत प्रक्रियाओं के द्वारा प्रताड़ना के चरम बिंदु तक पहुँचा देती है किंतु भुट्टा यातनाओं से डिगता कहाँ है।ये यातनाएं उसके लिए उत्प्रेरक होती है और फिर वर्षा आती है और आते-आते उस भुट्टे में सिंदूरी परत तैयार कर देती है और यह सिंदूरी नए जीवन का द्योतक होता है।
वह जीवन जो विपरीत परिस्थितियों में आकार लेता है।नवजीवन के इस उत्पत्ति को पत्थर पर डूब उग आने की संज्ञा देना अतिशयोक्ति नहीं होगा और यही चरित्र देखकर अंदर का धीरज बेबाक होकर बोल उठता है........
जिंदगी तो "भरी"ही होती है न....
और जिंदगी कभी-कभी खालीपन में ऐसे भी पनप ही जाती है..तब क्यों परिस्थितियों के थपेड़ो को सर पर लेकर घूमना है..! यह खूबसूरत जीवन है भाई और उससे ज्यादा कही खूबसूरत हमारे अंदर का धीरज
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