Saturday, January 22, 2022

जब हिटलर भी हो गया नेताजी का कायल.!

आजादी दिलाने के प्रयासों के क्रम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक बार हिटलर से मिलने गए. उस वक्त का एक रोचक किस्सा है...! दरअसल जब वह हिटलर से मिलने गए तो उन्हें एक कमरे में बिठा दिया गया.! उस दौरान दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था और हिटलर की जान को खतरा था, अपने बचाव के लिए हिटलर अपने आस-पास बॉडी डबल रखता था जो बिल्कुल उसी के जैसे लगाता था.! 


थोड़ी देर बाद नेता जी से मिलने के लिए हिटलर की शक्ल का एक शख्स आया और नेताजी की तरफ हाथ बढ़ाया. नेताजी ने हाथ तो मिला लिया लेकिन मुस्कुराकर बोले आप हिटलर नहीं हैं मैं उनसे मिलने आया हूं।। वह शख्स सकपका गया और वापस चला गया,थोड़ी देर बाद हिटलर जैसा दिखने वाला एक और शख्स नेता जी से मिलने आया..! हाथ मिलाने के बाद नेताजी ने उससे भी यही कहा कि वे हिटलर से मिलने आए हैं ना कि उनके बॉडी डबल से...! 


इसके बाद हिटलर खुद आया, इस बार नेताजी ने असली हिटलर को पहचान लिया और कहा, '' मैं सुभाष हूं... भारत से आया हूं.. आप हाथ मिलाने से पहले कृपया दस्ताने उतार दें क्योंकि मैं मित्रता के बीच में कोई दीवार नहीं चाहता.'' नेताजी के आत्मविश्वास को देखकर हिटलर भी उनका कायल हो गया...! उसने तुरंत नेताजी से पूछा आपने मेरे हमशक्लों को कैसे पहचान लिया. नेताजी ने उत्तर दिया- 'उन दोनों ने अभिवादन के लिए पहले हाथ बढ़ाया जबकि ऐसा मेहमान करते हैं.' नेताजी की बुद्धिमत्ता से हिटलर प्रभावित हो गया..! फिर हिटलर ने बोस जी से बहुत देर तक बातें की क्योंकि हिटलर ज्यादा किसी से मिलता नहीं था और ना ही बात करता था लेकिन नेताजी की विशाल शख्सियत के आगे भी हिटलर को झुकना पड़ा..!

Monday, January 17, 2022

मैं बनारस हूं.!

मैं बनारस हूँ....


मन कहता है मन करता है

कुछ बनारस के नाम लिखूँ!

इसे विद्या का मंदिर कह दूँ

या इसको तीरथ धाम लिखूँ.!!


पानी में गंगाजल हूँ

और पत्थर में मैं पारस हूँ!

इस पावन धरती पर मैं

पावन शहर बनारस हूँ!!


मैं गूगल की अडवाइस नहीं 

बुजुर्गों की अनुभवी राय हूँ!!

मैं नहीं हॉट कॉफी लाते सी

मैं कुल्लहड वाली चाय हूँ.!!


मैं वैलेंटाइन का सेलिब्रेशन नहीं

करवा चौथ मनाने वाली हूँ!

मैं रोज बुके नहीं रोज डे का

मैं पूजा के फूलों की थाली हूँ!!


विद्या धन पाने वालों के लिए

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हूँ!

भक्ति में श्रद्धा रखने के लिए

मैं दुर्गाकुंड और शिवालय हूँ!!


संकट को हरने वाला 

संकट मोचन का हनुमान हूँ मैं!

मर्यादा की राह बताने को

तुलसी मानस का राम हूँ मैं.!!


मैं शिव पार्वतीजी  की धरती 

मैं ही हूँ काशी विश्वनाथ 

मै विंध्याचल का आँचल हूँ

मैं बुद्ध जैनों की सारनाथ


मैं मालवीय जी की शक्ति

मुंशी प्रेमचंद की कहानी हूँ!

मैं दोहा तुलसी दास की हूँ

मैं ही कबीर की वाणी हूँ!!


मैं हरीश चंद्र की सच्चाई

मानवता की गहराई हूँ!

मैं नहीं पॉप डिस्को म्यूज़िक

बिस्मिल्लाह की शहनाई हूँ!!


मैं दशाश्वमेध की आरती हूँ

मैं ही शामें अस्सी हूँ!

मैं कोई पेप्सी कोला नहीं

मैं रामनगर की लस्सी हूँ!!


मैं सुबह की राग भैरवी हूँ

और कल्याण थाट हूँ मैं!

मैं मोक्ष मुक्ति का द्वार भी हूँ

हाँ मणिकर्णिका घाट हूँ मैं .!!


Wednesday, January 12, 2022

स्वार्थ की राजनीति.!

 

स्वार्थ की राजनीति.!

आज के समय में सभी राजनीतिक पार्टियां दूसरे दल से आए हुए उन तमाम नेताओं को तुरंत तरहीज देती है,उसे टिकट देकर चुनाव भी लड़वाती है उसके बाद इन नेताओं को चुनाव जीतने के बाद सत्ता सुख भोगने के भरपूर मौका देती उन्हें मंत्री भी बना देती हैं। जबकि इनके ख़ुद के कार्यकर्ता पार्टी के लिए जीजान से युवा से लेकर बुढ़ापे तक मेहनत करते हुए पता चलता है कि एक दिन स्वर्गलोक को चले जाते हैं उन्हें किसी भी तरह का कोई भी मौका नहीं मिल पाता है।
जबकि दूसरे दलों से आए हुए ये स्वार्थी नेता लोग 5 साल सत्ता का भरपूर आनंद लेते हैं और फिर जब चुनाव आता है तो पुनः दूसरे दल के दरवाजे पर भिखारी की तरह हाथ फ़ैलाते हुए चले जाते विडंबना देखिए कि वहां हर्ष के साथ अपना भी लिया जाता है। ख़ैर जाए भी क्यों न उसे वहां उसको लाभ दिखाई देता है लेकिन जब वो जिस पार्टी में जाते हैं और वो पार्टी सत्ता में दुबारा नहीं आती है तो बेचारे कहीं के नहीं होते हैं।😀😁
दरबदर भटकते रहते हैं, और फिर CBI, ED, income Tax के छापेमारी में ही इनकी जिंदगी बीत जाती है और फिर किसी को हार्ट अटैक तो किसी को कैंसर और धीरे धीरे ये नेता लोग विलुप्त होने लगते हैं..!😃😀

Monday, January 10, 2022

हमारे अंदर का धीरज.!

 कभी कोयला पर पका, खाया और फिर फेंका हुआ भुट्टा जो हमारे यहाँ लेढ़ा होता है उसे देखा है आपने?निश्चित देखा होगा क्योंकि यह सहज ही कहीं भी रोड के किनारे, घर के टीन या छत पर बहिष्कृत मिल जाता है। हमारे शिष्ट समाज में फेंका हुआ भुट्टा अलावन के अलावे और किसी काम का नहीं होता।प्रकृति भी इस भुट्टे को अपनी यातना की अनंत प्रक्रियाओं के द्वारा प्रताड़ना के चरम बिंदु तक पहुँचा देती है किंतु भुट्टा यातनाओं से डिगता कहाँ है।ये यातनाएं उसके लिए उत्प्रेरक होती है और फिर वर्षा आती है और आते-आते उस भुट्टे में सिंदूरी परत तैयार कर देती है और यह सिंदूरी नए जीवन का द्योतक होता है।

       वह जीवन जो विपरीत परिस्थितियों में आकार लेता है।नवजीवन के इस उत्पत्ति को पत्थर पर डूब उग आने की संज्ञा देना अतिशयोक्ति नहीं होगा और यही चरित्र देखकर अंदर का धीरज बेबाक होकर बोल उठता है........

     जिंदगी तो "भरी"ही होती है न....

    और जिंदगी कभी-कभी खालीपन में ऐसे भी पनप ही जाती है..तब क्यों परिस्थितियों के थपेड़ो को सर पर लेकर घूमना है..! यह खूबसूरत जीवन है भाई और उससे ज्यादा कही खूबसूरत हमारे अंदर का धीरज

Sunday, January 9, 2022

एक सफ़र था जिसमें कोई हमसफ़र था..!

 


ट्रेन चलने को ही थी कि अचानक कोई जाना पहचाना सा चेहरा जनरल में आ गया। मैं अकेली सफर पर थी। सब अजनबी चेहरे थे। स्लीपर का टिकट नहीं मिला तो जनरल डिब्बे में ही बैठना पड़ा। मगर यहां ऐसे हालात में उस शख्स से मिलना। जिंदगी के लिए एक संजीवनी के समान था।

जिंदगी भी कमबख्त कभी कभी अजीब से मोड़ पर ले आती है। ऐसे हालातों से सामना करवा देती है जिसकी कल्पना तो क्या कभी ख्याल भी नही कर सकते.!

वो आया और मेरे पास ही खाली जगह पर बैठ गया। ना मेरी तरफ देखा। ना पहचानने की कोशिश की। कुछ इंच की दूरी बना कर चुप चाप पास आकर बैठ गया। बाहर सावन की रिमझिम लगी थी। इस कारण वो कुछ भीग गया था। मैने कनखियों से नजर बचा कर उसे देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कमबख्त वैसा का वैसा ही था। हां कुछ भारी हो गया था। मगर इतना ज्यादा भी नही।
फिर उसने जेब से चश्मा निकाला और मोबाइल में लग गया।

चश्मा देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। उम्र का यही एक निशान उस पर नजर आया था कि आंखों पर चश्मा चढ़ गया था। चेहरे पर और सर पे मैने सफेद बाल खोजने की कोशिश की मग़र मुझे नही दिखे।

मैंने जल्दी से सर पर साड़ी का पल्लू डाल लिया। बालो को डाई किए काफी दिन हो गए थे मुझे। ज्यादा तो नही थे सफेद बाल मेरे सर पे। मगर इतने जरूर थे कि गौर से देखो तो नजर आ जाए।

मैं उठकर बाथरूम गई। हैंड बैग से फेसवाश निकाला चेहरे को ढंग से धोया फिर शीशे में चेहरे को गौर से देखा। पसंद तो नही आया मगर अजीब सा मुँह बना कर मैने शीशा वापस बैग में डाला और वापस अपनी जगह पर आ गई।

मग़र वो साहब तो खिड़की की तरफ से मेरा बैग सरकाकर खुद खिड़की के पास बैठ गए थे।
मुझे पूरी तरह देखा भी नही बस बिना देखे ही कहा, " सॉरी, भाग कर चढ़ा तो पसीना आ गया था । थोड़ा सुख जाए फिर अपनी जगह बैठ जाऊंगा।" फिर वह अपने मोबाइल में लग गया। मेरी इच्छा जानने की कोशिश भी नही की। उसकी यही बात हमेशा मुझे बुरी लगती थी। फिर भी ना जाने उसमे ऐसा क्या था कि आज तक मैंने उसे नही भुलाया। एक वो था कि दस सालों में ही भूल गया। मैंने सोचा शायद अभी तक गौर नही किया। पहचान लेगा। थोड़ी मोटी हो गई हूँ। शायद इसलिए नही पहचाना। मैं उदास हो गई।

जिस शख्स को जीवन मे कभी भुला ही नही पाई उसको मेरा चेहरा ही याद नही😔

माना कि ये औरतों और लड़कियों को ताड़ने की इसकी आदत नही मग़र पहचाने भी नही😔

शादीशुदा है। मैं भी शादीशुदा हुँ जानती थी इसके साथ रहना मुश्किल है मग़र इसका मतलब यह तो नही कि अपने खयालो को अपने सपनो को जीना छोड़ दूं।
एक तमन्ना थी कि कुछ पल खुल के उसके साथ गुजारूं। माहौल दोस्ताना ही हो मग़र हो तो सही😔

आज वही शख्स पास बैठा था जिसे स्कूल टाइम से मैने दिल मे बसा रखा था। सोसल मीडिया पर उसके सारे एकाउंट चोरी छुपे देखा करती थी। उसकी हर कविता, हर शायरी में खुद को खोजा करती थी। वह तो आज पहचान ही नही रहा😔

माना कि हम लोगों में कभी प्यार की पींगे नही चली। ना कभी इजहार हुआ। हां वो हमेशा मेरी केयर करता था, और मैं उसकी केयर करती थी। कॉलेज छुटा तो मेरी शादी हो गई और वो फ़ौज में चला गया। फिर उसकी शादी हुई। जब भी गांव गई उसकी सारी खबर ले आती थी।

बस ऐसे ही जिंदगी गुजर गई।

आधे घण्टे से ऊपर हो गया। वो आराम से खिड़की के पास बैठा मोबाइल में लगा था। देखना तो दूर चेहरा भी ऊपर नहीं किया..!😔

मैं कभी मोबाइल में देखती कभी उसकी तरफ। सोशल मीडिया पर उसके एकाउंट खोल कर देखे। तस्वीर मिलाई। वही था। पक्का वही। कोई शक नही था। वैसे भी हम महिलाएं पहचानने में कभी भी धोखा नही खा सकती। 20 साल बाद भी सिर्फ आंखों से पहचान ले☺️
फिर और कुछ वक्त गुजरा। माहौल वैसा का वैसा था। मैं बस पहलू बदलती रही।

फिर अचानक टीटी आ गया। सबसे टिकिट पूछ रहा था।
मैंने अपना टिकिट दिखा दिया। उससे पूछा तो उसने कहा नही है।

टीटी बोला, "फाइन लगेगा"
वह बोला, "लगा दो"
टीटी, " कहाँ का टिकिट बनाऊं?"

उसने जल्दी से जवाब नही दिया। मेरी तरफ देखने लगा। मैं कुछ समझी नही।
उसने मेरे हाथ मे थमी टिकट को गौर से देखा फिर टीटी से बोला, " कानपुर।"
टीटी ने कानपुर की टिकट बना कर दी। और पैसे लेकर चला गया।
वह फिर से मोबाइल में तल्लीन हो गया।

आखिर मुझसे रहा नही गया। मैंने पूछ ही लिया,"कानपुर में कहाँ रहते हो?"
वह मोबाइल में नजरें गढ़ाए हुए ही बोला, " कहीँ नही"
वह चुप हो गया तो मैं फिर बोली, "किसी काम से जा रहे हो"
वह बोला, "हाँ"

अब मै चुप हो गई। वह अजनबी की तरह बात कर रहा था और अजनबी से कैसे पूछ लूँ किस काम से जा रहे हो।
कुछ देर चुप रहने के बाद फिर मैंने पूछ ही लिया, "वहां शायद आप नौकरी करते हो?"
उसने कहा,"नही"

मैंने फिर हिम्मत कर के पूछा "तो किसी से मिलने जा रहे हो?"
वही संक्षिप्त उत्तर ,"नही"
आखरी जवाब सुनकर मेरी हिम्मत नही हुई कि और भी कुछ पूछूँ। अजीब आदमी था । बिना काम सफर कर रहा था।
मैं मुँह फेर कर अपने मोबाइल में लग गई।
कुछ देर बाद खुद ही बोला, " ये भी पूछ लो क्यों जा रहा हूँ कानपुर?"

मेरे मुंह से जल्दी में निकला," बताओ, क्यों जा रहे हो?"
फिर अपने ही उतावलेपन पर मुझे शर्म सी आ गई।
उसने थोड़ा सा मुस्कराते हुवे कहा, " एक पुरानी दोस्त मिल गई। जो आज अकेले सफर पर जा रही थी। फौजी आदमी हूँ। सुरक्षा करना मेरा कर्तव्य है । अकेले कैसे जाने देता। इसलिए उसे कानपुर तक छोड़ने जा रहा हूँ। " इतना सुनकर मेरा दिल जोर से धड़का। नॉर्मल नही रह सकी मैं।

मग़र मन के भावों को दबाने का असफल प्रयत्न करते हुए मैने हिम्मत कर के फिर पूछा, " कहाँ है वो दोस्त?"
कमबख्त फिर मुस्कराता हुआ बोला," यहीं मेरे पास बैठी है ना"

इतना सुनकर मेरे सब कुछ समझ मे आ गया। कि क्यों उसने टिकिट नही लिया। क्योंकि उसे तो पता ही नही था मैं कहाँ जा रही हूं। सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए वह दिल्ली से कानपुर का सफर कर रहा था। जान कर इतनी खुशी मिली कि आंखों में आंसू आ गए।

दिल के भीतर एक गोला सा बना और फट गया। परिणाम में आंखे तो भिगनी ही थी।
बोला, "रो क्यों रही हो?"

मै बस इतना ही कह पाई," तुम मर्द हो नही समझ सकते"
वह बोला, " क्योंकि थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ इसलिए एक कवि और लेखक भी हूँ। सब समझ सकता हूँ।"
मैंने खुद को संभालते हुए कहा "शुक्रिया, मुझे पहचानने के लिए और मेरे लिए इतना टाइम निकालने के लिए"
वह बोला, "प्लेटफार्म पर अकेली घूम रही थी। कोई साथ नही दिखा तो आना पड़ा। कल ही रक्षा बंधन था। इसलिए बहुत भीड़ है। तुमको यूँ अकेले सफर नही करना चाहिए।"

"क्या करती, उनको छुट्टी नही मिल रही थी। और भाई यहां दिल्ली में आकर बस गए। राखी बांधने तो आना ही था।" मैंने मजबूरी बताई।

"ऐसे भाइयों को राखी बांधने आई हो जिनको ये भी फिक्र नही कि बहिन इतना लंबा सफर अकेले कैसे करेगी?"

"भाई शादी के बाद भाई रहे ही नही। भाभियों के हो गए। मम्मी पापा रहे नही।"

कह कर मैं उदास हो गई।
वह फिर बोला, "तो पति को तो समझना चाहिए।"
"उनकी बहुत बिजी लाइफ है मैं ज्यादा डिस्टर्ब नही करती। और आजकल इतना खतरा नही रहा। कर लेती हुँ मैं अकेले सफर। तुम अपनी सुनाओ कैसे हो?"

"अच्छा हूँ, कट रही है जिंदगी"
"मेरी याद आती थी क्या?" मैंने हिम्मत कर के पूछा।
वो चुप हो गया।

कुछ नही बोला तो मैं फिर बोली, "सॉरी, यूँ ही पूछ लिया। अब तो परिपक्व हो गए हैं। कर सकते है ऐसी बात।"
उसने शर्ट की बाजू की बटन खोल कर हाथ मे पहना वो तांबे का कड़ा दिखाया जो मैंने ही फ्रेंडशिप डे पर उसे दिया था। बोला, " याद तो नही आती पर कमबख्त ये तेरी याद दिला देता था।"

कड़ा देख कर दिल को बहुत शुकुन मिला। मैं बोली "कभी सम्पर्क क्यों नही किया?"

वह बोला," डिस्टर्ब नही करना चाहता था। तुम्हारी अपनी जिंदगी है और मेरी अपनी जिंदगी है।"
मैंने डरते डरते पूछा," तुम्हे छू लुँ"

वह बोला, " पाप नही लगेगा?"
मै बोली," नही छू ने से नही लगता।"
और फिर मैं कानपुर तक उसका हाथ पकड़ कर बैठी रही।।

बहुत सी बातें हुईं।

जिंदगी का एक ऐसा यादगार दिन था जिसे आखरी सांस तक नहीं भुला पाऊंगी।
वह मुझे सुरक्षित घर छोड़ कर गया। रुका नही। बाहर से ही चला गया।

जम्मू थी उसकी ड्यूटी....चला गया।

उसके बाद उससे कभी बात नही हुई। क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे के फोन नम्बर नहीं लिए।

हांलांकि हमारे बीच कभी भी नापाक कुछ भी नही हुआ। एक पवित्र सा रिश्ता था। मगर रिश्तो की गरिमा बनाए रखना जरूरी था।

फिर ठीक एक महीने बाद मैंने अखबार में पढ़ा कि वो देश के लिए शहीद हो गया। क्या गुजरी होगी मुझ पर वर्णन नही कर सकती। उसके परिवार पर क्या गुजरी होगी। पता नहीं.!😔

लोक लाज के डर से मैं उसके अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकी।

आज उससे मिले एक साल हो गया है आज भी रक्षाबन्धन का दूसरा दिन है आज भी सफर कर रही हूँ। दिल्ली से कानपुर जा रही हूं। जानबूझकर जर्नल डिब्बे का टिकिट लिया है मैंने।
अकेली हूँ। न जाने दिल क्यों आस पाले बैठा है कि आज फिर आएगा और पसीना सुखाने के लिए उसी खिड़की के पास बैठेगा।
एक सफर वो था जिसमे कोई हमसफ़र था।
एक सफर आज है जिसमे उसकी यादें हमसफ़र है। बाकी जिंदगी का सफर जारी है देखते है कौन मिलता है कौन साथ छोड़ता है...!!

Omicron और Corona

दुनिया Omicron से Delmicron तक पहुंच रही है लेकिन भारत की सभी पार्टियां बीजेपी, सपा, बसपा और कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनाव में वोट बैंक तक पहुंच रही है। सत्ता पक्ष अर्थात बीजेपी को तत्काल प्रभाव से चुनाव अभियान रोकते हुए Omicron ओर Delmicron से लड़ने की गहन और व्यापक रणनीति बनाते हुए  कार्य करना चाहिए था वहीं पर विपक्ष की सभी पार्टियों को अपने अपने पद ओर सत्ता के लालच को छोड़कर सरकार पर जान माल की हानि को बचाने के लिए कार्य करने हेतु दबाव डालना चाहिए था। परंतु राहुल, अखिलेश भी ऐसा नहीं कर रहे हैं क्योंकि बहती गंगा में हाथ कौन नहीं धोना चाहता ?? सभी विपक्षी पार्टियां सोच रही हैं कि सरकार जो कर रही है करने दीजिए इससे कोरोना वायरस महीने भर बाद जब चारों तरफ हाहाकार मचाएगा और जब चारो तरफ लाशें  दिखाई देगी तो हम सत्तापक्ष पर सारा ठीकरा फोड़कर स्वयं को पाक साफ साबित कर देंगे। अगर बात करें जनता की तो देश की बहुसंख्यक जनता तो लॉकडाउन से उत्पन्न प्रभावों से अपने घर और परिवार को बचाने में लगी हुई है और देश मे जो कुछ बचे हुए बुद्धिजीवी हैं उन्होंने जब परिस्थितियां बिगड़ जाएगी तब तक के लिए अपनी बुद्धि को गिरवी रखा हुआ है ताकि जब परिस्थितियां बिगड़ने लगे तब सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनलों के माध्यम से बड़े-बड़े आर्टिकल लिखकर अपनी विक्षिप्त बुद्धिमता का परचम लहरा सके।

अंततः अगर आपमें तनिक भी विवेक और ज्ञान शेष रहा है तो कृपया कर सरकार पर दबाव बनाइए कि सभी कार्य छोड़ कर पहले आने वाले तूफान से देश को बचाइए क्योंकि जब लोग ही नहीं रहेंगे तो लोकतंत्र किस काम का.!

Friday, January 7, 2022

अमीरी पैसे से नहीं दिल से होती है.!

 दुनिया के सबसे धनवान व्यक्ति बिल गेट्स से किसी ने पूछा - 'क्या इस धरती पर आपसे भी अमीर कोई है ? बिल गेट्स ने जवाब दिया - हां, एक व्यक्ति इस दुनिया में मुझसे भी अमीर है। कौन -!!!!! बिल गेट्स ने बताया: एक समय मे जब मेरी प्रसिद्धि और अमीरी के दिन नहीं थे, मैं न्यूयॉर्क एयरपोर्ट पर था.. वहां सुबह सुबह अखबार देख कर, मैंने एक अखबार खरीदना चाहा,पर मेरे पास खुदरा पैसे नहीं थे.. सो, मैंने अखबार लेने का विचार त्याग कर उसे वापस रख दिया.. अखबार बेचने वाले लड़के ने मुझे देखा, तो मैंने खुदरा पैसे/सिक्के न होने की बात कही.. लड़के ने अखबार देते हुए कहा - यह मैं आपको मुफ्त में देता हूँ.. बात आई-गई हो गई.. कोई तीन माह बाद संयोगवश उसी एयरपोर्ट पर मैं फिर उतरा और अखबार के लिए फिर मेरे पास सिक्के नहीं थे।उस लड़के ने मुझे फिर से अखबार दिया, तो मैंने मना कर दिया। मैं ये नहीं ले सकता.. उस लड़के ने कहा, आप इसे ले सकते हैं, मैं इसे अपने प्रॉफिट के हिस्से से दे रहा हूँ.. मुझे नुकसान नहीं होगा। मैंने अखबार ले लिया...... 19 साल बाद अपने प्रसिद्ध हो जाने के बाद एक दिन मुझे उस लड़के की याद आयी और मैंने उसे ढूंढना शुरू किया। कोई डेढ़ महीने खोजने के बाद आखिरकार वह मिल गया। मैंने पूछा - क्या तुम मुझे पहचानते हो ? लड़का - हां, आप मि. बिल गेट्स हैं. गेट्स - तुम्हे याद है, कभी तुमने मुझे फ्री में अखबार दिए थे ? लड़का - जी हां, बिल्कुल.. ऐसा दो बार हुआ था.. गेट्स- मैं तुम्हारे उस किये हुए की कीमत अदा करना चाहता हूँ.. तुम अपनी जिंदगी में जो कुछ चाहते हो, बताओ, मैं तुम्हारी हर जरूरत पूरी करूंगा.. लड़का - सर, लेकिन क्या आप को नहीं लगता कि, ऐसा कर के आप मेरे काम की कीमत अदा नहीं कर पाएंगे.. गेट्स - क्यूं ..!!! लड़का - मैंने जब आपकी मदद की थी, मैं एक गरीब लड़का था, जो अखबार बेचता था.. आप मेरी मदद तब कर रहे हैं, जब आप इस दुनिया के सबसे अमीर और सामर्थ्य वाले व्यक्ति हैं.. फिर, आप मेरी मदद की बराबरी कैसे करेंगे...!!! बिल गेट्स की नजर में, वह व्यक्ति दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति से भी अमीर था, क्योंकि--- "किसी की मदद करने के लिए, उसने अमीर होने का इंतजार नहीं किया था ".... अमीरी पैसे से नहीं दिल से होती है दोस्तों किसी की मदद करने के लिए अमीर दिल का होना भी बहुत जरूरी है..!

नजरिया.!

 नजरिया....!


राजा भोज एक बार जंगल में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए वह अपने सैनिकों से बिछुड़ गए. वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे.


 तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर लकड़ियों का गठ्ठर उठाए वहां से गुजरा.

लकड़हारा अपनी धुन में चला जा रहा था.


 उसकी नजर राजा भोज पर पड़ी. एक पल के लिए रुका. उसने राजा को गौर से देखा फिर अपने रास्ते पर बढ़ गया.


राजा को लकड़हारे के व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ. लकड़हारे ने न उन्हें प्रणाम किया, न ही उनकी सेवा में आया.


उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ‘तुम कौन हो?’


लकड़हारे ने जवाब दिया, ‘मैं अपने मन का राजा हूं.’


राजा ने पूछा, ‘अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी. कितना कमाते हो?’


लकड़हारे ने जवाब दिया, ‘मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं.’


भोज की दिलचस्पी बढ़ रही थी. उन्होंने पूछा, ‘तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’


लकड़हारा बोला, ‘मैं रोज एक मुद्रा अपने ऋणदाता यानी मेरे माता-पिता को देता हूं.


 उन्होंने मुझे पाला-पोसा है, मेरे लिए हर कष्ट सहा है.


दूसरी मुद्रा अपने ग्राहक आसामी यानी अपने बच्चों को देता हूं. मैं उन्हें यह ऋण इसलिए दे रहा हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वे मुझे यह ऋण वापस लौटाएं.’


तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं, वह है मेरी पत्नी. अच्छा मंत्री वह होता है जो राजा को उचित सलाह दे, हर सुख-दुख में उसका साथ दे. पत्नी से अच्छा साथी मंत्री कौन हो सकता है!


चौथी मुद्रा मैं राज्य के खजाने में देता हूं. पांचवीं मुद्रा का उपयोग मैं अपने खाने-पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं कड़ी मेहनत करता हूं.


छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है. अतिथि सत्कार हमारा परम धर्म है.’


एक लकड़हारे से ज्ञान की ऐसी बातें सुनकर राजा हक्के-बक्के रह गए.


राजा भोज सोचने लगे, ‘मेरे पास तो लाखों मुद्राएं है पर मैं जीवन के आनंद से वंचित हूं. छह मुद्राएं कमाने वाला लकड़हारा जीवन की शिक्षा का पालन करता अपना वर्तमान और भविष्य दोनों सुखद बना रहा है.’


राजा इसी उधेड़बुन में थे. लकड़हारा जाने लगा. वह लौटकर आया. उसने राजा भोज को प्रणाम किया और बोला, ‘मैं आपको पहचान गया था कि आप राजा भोज हैं. पर मुझे उससे क्या लेना-देना?


अपने जीवन से मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं इसलिए अपना राजा तो मैं स्वयं हूं.’ जाते-जाते उसने भोज को कई और सबक दे दिए थे.


नजरियाः हमारे जीवन का एक बड़ा भाग सोने में निकल जाता है. उसके बाद का सबसे बड़ा भाग आजीविका जुटाने में. आज की दृष्टि इसी बात पर कि आजीविका आखिर है क्या?


एक तरफ राजा भोज हैं जिनके पास अनंत स्वर्ण मुद्राएं हैं. जिन्हें राज्य की चिंता, अपने परिजनों की चिंता करनी है लेकिन उलझनों में फंसे है.


राजा हैं तो राजा होने का अभिमान भी है. सभी के द्वारा उनकी वंदना हो इसकी भी इच्छा रखते हैं. कैसे सब पर नियंत्रण बनाए रखा जाए, इसकी चिंता अलग.


दूसरी तरफ वह लकड़हारा जो अपनी मेहनत से रोज की छह स्वर्ण मुद्राएं कमाता है. उसमें से कहां और कितना खर्चना है, यह तय कर रखा है. किसी मारामारी में नहीं है.


जीवन सुकून से चल रहा है. सिर्फ सुकून ही क्यों वह अपनी, अपने परिवार की और अपने देश तक की चिंता करता हुआ सुखी है.


इच्छाओं का कहीं अंत है क्या? एक के बाद दूसरी पैदा होगी. एक आत्मअनुशासन रखिए. अपने बच्चों के सामने कभी बड़ी-बड़ी इच्छाओं और उसे पूरी करने के लिए कर रहे प्रपंचों की चर्चा न होने दें.


एक असंतुष्ट मन विवेकपूर्ण निर्णय नहीं कर पाता. अपनी जरूरतों की हमें एक रेखा खींच लेनी चाहिए.


जीवन सुखमय होगा यदि हम राजा भोज की बजाय लकड़हारे बनने का प्रयास करेंगे. मन का राजा होता है. मन के राजा के सामने सभी गुलाम होते हैं.


कबीरदास जी ने कितनी सुंदर बात लिखी है-


चाह मिटी चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह !

 उनको कुछ नहीं चाहिए, जो शाहन के शाह !!

नम्र बनो इसमें कुछ भी खर्च नहीं.!

 अमिताभ बच्चन कहते हैं ... "अपने करियर के चरम पर, मैं एक बार हवाई जहाज से यात्रा कर रहा था। मेरे बगल वाली सीट पे एक साधारण से सज्जन व्यक्ति बैठे थे, जिसने एक साधारण शर्ट और पैंट पहन रखी थी। वह मध्यम वर्ग का लग रहा था, और बेहद शिक्षित दिख रहा था।


अन्य यात्री मुझे पहचान रहे थे कि मैं कौन हूँ, लेकिन यह सज्जन मेरी उपस्थिति के प्रति अंजान लग रहे थे ... वह अपना पेपर पढ़ रहे थे, खिड़की से बाहर देख रहे थे, और जब चाय परोसी गई, तो उन्होंने इसे चुपचाप पी लिया ।


उसके साथ बातचीत करने की कोशिश में मैं उन्हें देख मुस्कुराया। वह आदमी मेरी ओर देख विनम्रता से मुस्कुराया और 'हैलो' कहा।


हमारी बातचीत शुरू हुई और मैंने सिनेमा और फिल्मों के विषय को उठाया और पूछा, 'क्या आप फिल्में देखते हैं?'


आदमी ने जवाब दिया, 'ओह, बहुत कम। मैंने कई साल पहले एक फिल्म देखा था। '


मैंने उल्लेख किया कि मैंने फिल्म उद्योग में काम किया है।


आदमी ने जवाब दिया .. "ओह, यह अच्छा है। आप क्या करते हैं?"


मैंने जवाब दिया, 'मैं एक अभिनेता हूं'


आदमी ने सिर हिलाया, 'ओह, यह अद्भुत है!' तो  यह  बात हैं ...


जब हम उतरे, तो मैंने हाथ मिलाते हुए कहा, "आपके साथ यात्रा करना अच्छा था। वैसे, मेरा नाम अमिताभ बच्चन है!"


उस आदमी ने हाथ मिलाते हुए मुस्कुराया, "थैंक्यू ... आपसे मिलकर अच्छा लगा..मैं जे आर डी टाटा (टाटा का चेयरमैन) हूं!"


मैंने उस दिन सीखा कि आप चाहे कितने भी बड़े हो।हमेशा आप से कोई  #बड़ा होता है।


"नम्र बनो, इसमें कुछ भी खर्च नहीं है"...!!!

पिता-पुत्र का प्यार.!

 एक पुत्र अपने वृद्ध पिता को रात्रिभोज के लिये एक अच्छे रेस्टोरेंट में लेकर गया। खाने के दौरान वृद्ध पिता ने कई बार भोजन अपने कपड़ों पर गिराया। रेस्टोरेंट में बैठे दूसरे खाना खा रहे लोग वृद्ध को घृणा की नजरों से देख रहे थे लेकिन उसका पुत्र शांत था। 


खाने के बाद पुत्र बिना किसी शर्म के वृद्ध को वॉशरूम ले गया। उनके कपड़े साफ़ किये, चेहरा साफ़ किया, बालों में कंघी की, चश्मा पहनाया, और फिर बाहर लाया। सभी लोग खामोशी से उन्हें ही देख रहे थे। 


फ़िर उसने बिल का भुगतान किया और वृद्ध के साथ बाहर जाने लगा। तभी डिनर कर रहे एक अन्य वृद्ध ने उसे आवाज दी, और पूछा - क्या तुम्हें नहीं लगता कि यहाँ अपने पीछे तुम कुछ छोड़ कर जा रहे हो? 


उसने जवाब दिया - नहीं सर, मैं कुछ भी छोड़कर नहीं जा रहा।  


वृद्ध ने कहा - बेटे, तुम यहाँ प्रत्येक पुत्र के लिए एक शिक्षा, सबक और प्रत्येक पिता के लिए उम्मीद छोड़कर जा रहे हो।  


आमतौर पर हम लोग अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ बाहर ले जाना पसंद नहीं करते,

और कहते हैं - क्या करोगे, आपसे चला तो जाता नहीं, ठीक से खाया भी नहीं जाता, आप तो घर पर ही रहो, वही अच्छा होगा।


लेकिन क्या आप भूल गये कि जब आप छोटे थे, और आपके माता पिता आपको अपनी गोद में उठाकर ले जाया करते थे। आप जब ठीक से खा नहीं पाते थे तो माँ आपको अपने हाथ से खाना खिलाती थी, और खाना गिर जाने पर डाँट नही प्यार जताती थी।


फिर वही माँ बाप बुढ़ापे में बोझ क्यों लगने लगते हैं? 


माँ-बाप भगवान का रूप होते हैं। उनकी सेवा कीजिये, और प्यार दीजिये क्योंकि एक दिन आप भी बूढ़े होंगे।।

Thursday, January 6, 2022

धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता ही हमें विकास की ओर ले जाती हैं..!

 नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद,एक दिन अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ रेस्तरां में खाना खाने गए..! खाने का आर्डर दिया और उसके आने का इंतजार करने लगे..!


उसी समय मंडेला की सीट के सामने एक व्यक्ति भी अपने खाने का आने का इंतजार कर रहा था,मंडेला ने अपने सुरक्षाकर्मी को कहा,उसे भी अपनी टेबुल पर बुला लो। ऐसा ही हुआ,खाना आने के बाद सभी खाने लगे,वो आदमी भी साथ खाने लगा,पर उसके हाथ खाते समय काँप रहे थे। माथा पसीने से तर था,खाना खत्म कर वो आदमी सिर झुका कर होटल से निकल गया..! 


उस आदमी के खाना खा के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी ने मंडेला से कहा कि वो व्यक्ति शायद बहुत बीमार था। खाते वक़्त उसके हाथ लगातार कांप रहे थे। वह भी कांप रहा था और पसीना भी आ रहा था। घबराया सा भी लग रहा था..!


मंडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है।। वह उस जेल का जेलर था,जिसमें मुझे रखा गया था।। जब कभी मुझे यातनाएं दी जाती और मैं कराहते हुये पानी मांगता तो ये गाली देता हुआ मेरे ऊपर पेशाब करता था..!


मंडेला ने कहा मैं अब राष्ट्रपति बन गया हूं,उसने समझा कि मै भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करूंगा पर मेरा यह चरित्र नहीं है। 


मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है। यही धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता ही हमें विकास की ओर ले जाती हैं..!

जिंदगी जीने के सार.!

 अच्छाई हमेशा पलट- पलट कर आ ही जाती है.....!


ब्रिटेन के स्कॉटलैंड में फ्लेमिंग नाम का एक गरीब किसान था। एक दिन वह अपने खेत पर काम कर रहा था। अचानक पास में से किसी के चीखने की आवाज सुनाई पड़ी । किसान ने अपना साजो सामान व औजार फेंका और तेजी से आवाज की तरफ लपका।


आवाज की दिशा में जाने पर उसने देखा कि एक बच्चा दलदल में डूब रहा था । वह बालक कमर तक कीचड़ में फंसा हुआ बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा था। वह डर के मारे बुरी तरह कांप पर रहा था और चिल्ला रहा था।


किसान ने आनन-फानन में लंबी टहनी ढूंढी। अपनी जान पर खेलकर उस टहनी के सहारे बच्चे को बाहर निकाला।अगले दिन उस किसान की छोटी सी झोपड़ी के सामने एक शानदार गाड़ी आकर खड़ी हुई।उसमें से कीमती वस्त्र पहने हुए एक सज्जन उतरे 


उन्होंने किसान को अपना परिचय देते हुए कहा- " मैं उस बालक का पिता हूं और मेरा नाम राँडॉल्फ चर्चिल है।"


फिर उस अमीर राँडाल्फ चर्चिल ने कहा कि वह इस एहसान का बदला चुकाने आए हैं ।


फ्लेमिंग नामक उस किसान ने उन सज्जन के ऑफर को ठुकरा दिया ।

 उसने कहा, "मैंने जो कुछ किया उसके बदले में कोई पैसा नहीं लूंगा।

किसी को बचाना मेरा कर्तव्य है, मानवता है , इंसानियत है और उस मानवता इंसानियत का कोई मोल नहीं होता ।"


इसी बीच फ्लेमिंग का बेटा झोपड़ी के दरवाजे पर आया।

उस अमीर सज्जन की नजर अचानक उस पर गई तो उसे एक विचार सूझा । 

उसने पूछा - "क्या यह आपका बेटा है ?"


किसान ने गर्व से कहा- "हां !"


उस व्यक्ति ने अब नए सिरे से बात शुरू करते हुए किसान से कहा- "ठीक है अगर आपको मेरी कीमत मंजूर नहीं है तो ऐसा करते हैं कि आपके बेटे की शिक्षा का भार मैं अपने ऊपर लेता हूं । मैं उसे उसी स्तर की शिक्षा दिलवाने की व्यवस्था करूंगा जो अपने बेटे को दिलवा रहा हूं।फिर आपका बेटा आगे चलकर एक ऐसा इंसान बनेगा , जिस पर हम दोनों गर्व महसूस करेंगे।"


किसान ने सोचा "मैं तो अपने पुत्र को उच्च शिक्षा दिला पाऊंगा नहीं और ना ही सारी सुविधाएं जुटा पाऊंगा, जिससे कि यह बड़ा आदमी बन सके ।अतः इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता हूँ।"


बच्चे के भविष्य की खातिर फ्लेमिंग तैयार हो गया ।अब फ्लेमिंग के बेटे को सर्वश्रेष्ठ स्कूल में पढ़ने का मौका मिला।

आगे बढ़ते हुए उसने लंदन के प्रतिष्ठित सेंट मेरीज मेडिकल स्कूल से स्नातक डिग्री हासिल की। 

फिर किसान का यही बेटा पूरी दुनिया में "पेनिसिलिन" का आविष्कारक महान वैज्ञानिक सर अलेक्जेंडर फ्लेमिंग के नाम से विख्यात हुआ।


यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती! कुछ वर्षों बाद, उस अमीर के बेटे को निमोनिया हो गया ।

और उसकी जान पेनिसिलीन के इंजेक्शन से ही बची। 

उस अमीर राँडाल्फ चर्चिल के बेटे का नाम था- विंस्टन चर्चिल जो दो बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे !

हैं न आश्चर्यजनक संजोग।


इसलिए ही कहते हैं कि व्यक्ति को हमेशा अच्छे काम करते रहना चाहिए..! क्योंकि आपका किया हुआ काम आखिरकार लौटकर आपके ही पास आता है ! यानी अच्छाई पलट - पलट कर आती रहती है!यकीन मानिए मानवता की दिशा में उठाया गया प्रत्येक कदम आपकी  स्वयं की चिंताओं को कम करने में मील का पत्थर साबित होगा..! 


यहीं जिन्दगी जीने का सार हैं:----


जीवन भी कुछ ऐसा ही है

जो झुकता है वो अवश्य

कुछ न कुछ लेकर ही उठता है..!

चीजें इस्तेमाल के लिए और इंसान प्यार के लिए.!

 एक बार एक व्यक्ति अपनी नई कार को बड़े प्यार से पॉलिश करके के चमका रहा था,तभी उसकी 4 साल की बेटी घर से बाहर आती है,और वहां पड़े पत्थर से कार पर कुछ लिखने लगती है..! कार पर खरोंच लगता देख उसके पिता गुस्से से इतना तिलमिला उठता है और बच्ची का हाथ पकड़कर जोर से मोड़ देता है नाज़ुक सी बच्ची का हाथ फ्रैक्चर हो जाता है,अस्पताल जाते वक़्त तक दर्द से कराहती रहती हैं..! जब डॉक्टर उसके हाथ का प्लास्टर कर देते हैं तो वो अपने पापा से कराह कर पूछती है कि मेरा हाथ कब तक ठीक हो जाएगा..? अपनी गलती पर पछतावा कर रहा पिता उसको कोई ज़बाब नहीं देता है..! वह वापस आ जाता है और कार पर लाते बरसाने लगता है, गुस्सा निकालने की कोशिश करता है..! कुछ देर बाद उसे खरोंच पर नजर पड़ती है,जिसकी वजह से उसने अपनी नन्ही सी बेटी का हाथ तोड़ दिया था।। बेटी ने जो पत्थर से खरोंच किया था उस पर लिखा था "I love you Papa"...! उसे बहुत ही पछतावा होता है कि मैंने ऐसा क्यों किया..! 


गुस्से और प्यार की सीमा नहीं होती,याद रखें चीजें इस्तेमाल के लिए होती हैं और इंसान प्यार करने के लिए,लेकिन होता इसका उल्टा है..! लोगों को अपनी चीजों से प्यार और लोगों का इस्तेमाल करतें हैं..!

तलाक कागज़ का एक टुकड़ा.!

 तलाक कागज का एक टुकड़ा...!


राधिका और नवीन को आज तलाक के कागज मिल गए थे। दोनो साथ ही कोर्ट से बाहर निकले। दोनो के परिजन साथ थे और उनके चेहरे पर विजय और सुकून के निशान साफ झलक रहे थे। चार साल की लंबी लड़ाई के बाद आज फैसला हो गया था।

दस साल हो गए थे शादी को मग़र साथ मे छः साल ही रह पाए थे। 

चार साल तो तलाक की कार्यवाही में लग गए।

राधिका के हाथ मे दहेज के समान की लिस्ट थी जो अभी नवीन के घर से लेना था और नवीन के हाथ मे गहनों की लिस्ट थी जो राधिका से लेने थे।


साथ मे कोर्ट का यह आदेश भी था कि नवीन  दस लाख रुपये की राशि एकमुश्त राधिका को चुकाएगा।


राधिका और नवीन दोनो एक ही टेम्पो में बैठकर नवीन के घर पहुंचे।  दहेज में दिए समान की निशानदेही राधिका को करनी थी।

इसलिए चार वर्ष बाद ससुराल जा रही थी। आखरी बार बस उसके बाद कभी नही आना था उधर।


सभी परिजन अपने अपने घर जा चुके थे। बस तीन प्राणी बचे थे।नवीन, राधिका और राधिका की माता जी।


नवीन घर मे अकेला ही रहता था।  मां-बाप और भाई आज भी गांव में ही रहते हैं। 


राधिका और नवीन का इकलौता बेटा जो अभी सात वर्ष का है कोर्ट के फैसले के अनुसार बालिग होने तक वह राधिका के पास ही रहेगा। नवीन महीने में एक बार उससे मिल सकता है।

घर मे प्रवेश करते ही पुरानी यादें ताज़ी हो गई। कितनी मेहनत से सजाया था इसको राधिका ने। एक एक चीज में उसकी जान बसी थी। सब कुछ उसकी आँखों के सामने बना था।एक एक ईंट से  धीरे धीरे बनते घरोंदे को पूरा होते देखा था उसने।

सपनो का घर था उसका। कितनी शिद्दत से नवीन ने उसके सपने को पूरा किया था।

नवीन थकाहारा सा सोफे पर पसर गया। बोला "ले लो जो कुछ भी चाहिए मैं तुझे नही रोकूंगा"

राधिका ने अब गौर से नवीन को देखा। चार साल में कितना बदल गया है। बालों में सफेदी झांकने लगी है। शरीर पहले से आधा रह गया है। चार साल में चेहरे की रौनक गायब हो गई।


वह स्टोर रूम की तरफ बढ़ी जहाँ उसके दहेज का अधिकतर  समान पड़ा था। सामान ओल्ड फैशन का था इसलिए कबाड़ की तरह स्टोर रूम में डाल दिया था। मिला भी कितना था उसको दहेज। प्रेम विवाह था दोनो का। घर वाले तो मजबूरी में साथ हुए थे। 

प्रेम विवाह था तभी तो नजर लग गई किसी की। क्योंकि प्रेमी जोड़ी को हर कोई टूटता हुआ देखना चाहता है। 

बस एक बार पीकर बहक गया था नवीन। हाथ उठा बैठा था उसपर। बस वो गुस्से में मायके चली गई थी। 

फिर चला था लगाने सिखाने का दौर । इधर नवीन के भाई भाभी और उधर राधिका की माँ। नोबत कोर्ट तक जा पहुंची और तलाक हो गया।


न राधिका लौटी और न नवीन लाने गया। 


राधिका की माँ बोली" कहाँ है तेरा सामान? इधर तो नही दिखता। बेच दिया होगा इस शराबी ने ?"


"चुप रहो माँ" 

राधिका को न जाने क्यों नवीन को उसके मुँह पर शराबी कहना अच्छा नही लगा।


फिर स्टोर रूम में पड़े सामान को एक एक कर लिस्ट में मिलाया गया। 

बाकी कमरों से भी लिस्ट का सामान उठा लिया गया।

राधिका ने सिर्फ अपना सामान लिया नवीन के समान को छुवा भी नही।  फिर राधिका ने नवीन को गहनों से भरा बैग पकड़ा दिया। 

नवीन ने बैग वापस राधिका को दे दिया " रखलो, मुझे नही चाहिए काम आएगें तेरे मुसीबत में ।"


गहनों की किम्मत 15 लाख से कम नही थी। 

"क्यूँ, कोर्ट में तो तुम्हरा वकील कितनी दफा गहने-गहने चिल्ला रहा था" 

"कोर्ट की बात कोर्ट में खत्म हो गई, राधिका। वहाँ तो मुझे भी दुनिया का सबसे बुरा जानवर और शराबी साबित किया गया है।"

सुनकर राधिका की माँ ने नाक भों चढ़ाई।


"नही चाहिए। 

वो दस लाख भी नही चाहिए"


 "क्यूँ?" कहकर नवीन सोफे से खड़ा हो गया।


"बस यूँ ही" राधिका ने मुँह फेर लिया।


"इतनी बड़ी जिंदगी पड़ी है कैसे काटोगी? ले जाओ,,, काम आएगें।"


इतना कह कर नवीन ने भी मुंह फेर लिया और दूसरे कमरे में चला गया। शायद आंखों में कुछ उमड़ा होगा जिसे छुपाना भी जरूरी था।


राधिका की माता जी गाड़ी वाले को फोन करने में व्यस्त थी।


राधिका को मौका मिल गया। वो नवीन के पीछे उस कमरे में चली गई।


वो रो रहा था। अजीब सा मुँह बना कर।  जैसे भीतर के सैलाब को दबाने दबाने की जद्दोजहद कर रहा हो। राधिका ने उसे कभी रोते हुए नही देखा था। आज पहली बार देखा न जाने क्यों दिल को कुछ सुकून सा मिला।


मग़र ज्यादा भावुक नही हुई।


सधे अंदाज में बोली "इतनी फिक्र थी तो क्यों दिया तलाक?"


"मैंने नही तलाक तुमने दिया" 


"दस्तखत तो तुमने भी किए"


"माफी नही माँग सकते थे?"


"मौका कब दिया तुम्हारे घर वालों ने। जब भी फोन किया काट दिया।"


"घर भी आ सकते थे"?


"हिम्मत नही थी?"


राधिका की माँ आ गई। वो उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गई। "अब क्यों मुँह लग रही है इसके? अब तो रिश्ता भी खत्म हो गया"


मां-बेटी बाहर बरामदे में सोफे पर बैठकर गाड़ी का इंतजार करने लगी। 

राधिका के भीतर भी कुछ टूट रहा था। दिल बैठा जा रहा था। वो सुन्न सी पड़ती जा रही थी। जिस सोफे पर बैठी थी उसे गौर से देखने लगी। कैसे कैसे बचत कर के उसने और नवीन ने वो सोफा खरीदा था। पूरे शहर में घूमी तब यह पसन्द आया था।"

 

फिर उसकी नजर सामने तुलसी के सूखे पौधे पर गई। कितनी शिद्दत से देखभाल किया करती थी। उसके साथ तुलसी भी घर छोड़ गई।


घबराहट और बढ़ी तो वह फिर से उठ कर भीतर चली गई। माँ ने पीछे से पुकारा मग़र उसने अनसुना कर दिया। नवीन बेड पर उल्टे मुंह पड़ा था। एक बार तो उसे दया आई उस पर। मग़र  वह जानती थी कि अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है इसलिए उसे भावुक नही होना है। 


उसने सरसरी नजर से कमरे को देखा। अस्त-व्यस्त हो गया है पूरा कमरा। कहीं कंही तो मकड़ी के जाले झूल रहे हैं।


कितनी नफरत थी उसे मकड़ी के जालों से?


फिर उसकी नजर चारों और लगी उन फोटो पर गई जिनमे वो नवीन से लिपट कर मुस्करा रही थी।

कितने सुनहरे दिन थे वो।


इतने में माँ फिर आ गई। हाथ पकड़ कर फिर उसे बाहर ले गई।


बाहर गाड़ी आ गई थी। सामान गाड़ी में डाला जा रहा था। राधिका सुन सी बैठी थी। नवीन गाड़ी की आवाज सुनकर बाहर आ गया। 

अचानक नवीन कान पकड़ कर घुटनो के बल बैठ गया।

बोला--" मत जाओ,,, माफ कर दो"

शायद यही वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए चार साल से तड़प रही थी। सब्र के सारे बांध एक साथ टूट गए। राधिका ने कोर्ट के फैसले का कागज निकाला और फाड़ दिया । 

और मां कुछ कहती उससे पहले ही लिपट गई नवीन से। साथ मे दोनो बुरी तरह रोते जा रहे थे।

दूर खड़ी राधिका की माँ समझ गई कि 

कोर्ट का आदेश दिलों के सामने कागज से ज्यादा कुछ नही।


काश उनको पहले मिलने दिया होता.!

Swami Vivekanand Speech in Chicago

 Swami Vivekananda’s speech at the Parliament of Religion, Chicago 

11 September 1893


"Sisters and Brothers of America"......


It fills my heart with joy unspeakable to rise in response to the warm and cordial welcome which you have given us. I thank you in the name of the most ancient order of monks in the world; I thank you in the name of the mother of religions, and I thank you in the name of millions and millions of Hindu people of all classes and sects.


My thanks, also, to some of the speakers on this platform who, referring to the delegates from the Orient, have told you that these men from far-off nations may well claim the honor of bearing to different lands the idea of toleration. I am proud to belong to a religion which has taught the world both tolerance and universal acceptance. We believe not only in universal toleration, but we accept all religions as true. I am proud to belong to a nation which has sheltered the persecuted and the refugees of all religions and all nations of the earth. I am proud to tell you that we have gathered in our bosom the purest remnant of the Israelites, who came to Southern India and took refuge with us in the very year in which their holy temple was shattered to pieces by Roman tyranny. I am proud to belong to the religion which has sheltered and is still fostering the remnant of the grand Zoroastrian nation. I will quote to you, brethren, a few lines from a hymn which I remember to have repeated from my earliest boyhood, which is every day repeated by millions of human beings: "As the different streams having their sources in different paths which men take through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee."


The present convention, which is one of the most august assemblies ever held, is in itself a vindication, a declaration to the world of the wonderful doctrine preached in the Gita: "Whosoever comes to Me, through whatsoever form, I reach him; all men are struggling through paths which in the end lead to me." Sectarianism, bigotry, and its horrible descendant, fanaticism, have long possessed this beautiful earth. They have filled the earth with violence, drenched it often and often with human blood, destroyed civilization and sent whole nations to despair. Had it not been for these horrible demons, human society would be far more advanced than it is now. But their time is come; and I fervently hope that the bell that tolled this morning in honor of this convention may be the death-knell of all fanaticism, of all persecutions with the sword or with the pen, and of all uncharitable feelings between persons wending their way to the same goal.


Address at the final session:--

Chicago, September 27,1893


The World's Parliament of Religions has become an accomplished fact, and the merciful Father has helped those who laboured to bring it into existence, and crowned with success their most unselfish labour.


My thanks to those noble souls whose large hearts and love of truth first dreamed this wonderful dream and then realized it. My thanks to the shower of liberal sentiments that has overflowed this platform. My thanks to this enlightened audience for their uniform kindness to me and for their appreciation of every thought that tends to smooth the friction of religions. A few jarring notes were heard from time to time in this harmony. My special thanks to them, for they have, by their striking contrast, made general harmony the sweeter.


Much has been said of the common ground of religious unity. I am not going just now to venture my own theory. But if any one here hopes that this unity will come by the triumph of any one of the religions and the destruction of the others, to him I say, "Brother, yours is an impossible hope." Do I wish that the Christian would become Hindu? God forbid. Do I wish that the Hindu or Buddhist would become Christian? God forbid.


The seed is put in the ground, and earth and air and water are placed around it. Does the seed become the earth or the air, or the water? No. It becomes a plant, it develops after the law of its own growth, assimilates the air, the earth, and the water, converts them into plant substance, and grows into a plant. Similar is the case with religion. The Christian is not to become a Hindu or a Buddhist, nor a Hindu or a Buddhist to become a Christian. But each must assimilate the spirit of the others and yet preserve their individuality and grow according to their own law of growth.

If the Parliament of Religions has shown anything to the world it is this: It has proved to the world that holiness, purity and charity are not the exclusive possessions of any church in the world, and that every system has produced men and women of the most exalted character. In the face of this evidence, if some people still dream of the exclusive survival of their own religion and the destruction of the others, I pity them from the bottom of my heart, and point out to them that upon the banner of every religion will soon be written, in spite of resistance: “Help and not Fight”, “Assimilation and not Destruction”,; “Harmony and Peace and not Dissension.”

वोट और वोटर

 वोटर पहले जाति के आधार पर वोट देते हैं, और फिर प्रश्न करते हैं कि नेता ने काम क्यों नहीं किया ! पार्टी भी किसी भी क्षेत्र में टिकट बांटते वक्त सबसे पहले जातीय समीकरण को ही आधार बनाती हैं। अगर जाति और धर्म से ही प्रतिनिधि चुनना है तो फिर काम ना होने पर प्रश्न भी नहीं करना चाहिए। अगर आपको ये गलत लग रहा है किसी भी पार्टी की पुरानी लिस्ट उठा कर पढ़ लीजिए , फिर चाहे वो पिछड़ी सीट हों या साधारण..!


उदाहरण के तौर पर, हमें याद हैं पिछला विधानसभा चुनाव का वो दौर, हमारे घर के पास एक हाउस हेल्प रहती थीं जब उनसे,पूछा गया कि उनके विचार में कौन सही हैं, तो उन्होंने सरल शब्दों में यही बोला हम जैसे लोग के लिए जो काम करेगा हम उन्हीं को ना वोट देंगे बहिनजी जी हम जैसे लोग का ध्यान रख सकती हैं और वहीं हमे अपना समझती भी हैं..!


आम तौर पर लोगो में धारणा भी हैं कि अपने जाति के ही लोग आपके लिए आपके बुरे समय में खड़े रह सकते हैं । जब आप ठाकुर होकर ठाकुर को ही वोट देकर मोहल्ले में क्लीनिक और सरकारी स्कूल की बात करते हैं तो आप गलत हैं.! आप कहते हैं काम पर चुनाव होगा , होता होगा पर वोट विकास पर नहीं दिलाता है वोट,

आप पंडित हैं ना सर तो पंडित को ही देंगे, कोई जानने की कोशिश भी नहीं करता हैं कि उनकी शिक्षा, क्राइम हिस्ट्री (सबकी होती है और इसमें कोई दो राय नहीं है ) पिछले सामाजिक कार्य क्या थे,पर प्रश्न आप जरूर करेंगे,करना भी चाहिए क्योंकि ये आपका मौलिक अधिकार हैं..! 


पर वोटर होने का अधिकार का आपने खुद कितना फायदा उठाया है, क्या आपने खुद वोट देते वक्त उम्मीदवारों के बारे में कुछ भी जानना चाहा, यूपी,बिहार जैसे राज्य में या देश के अधिकांश चुनावों में वोट ये देख कर दिया जाता है कि हमारी बुआ या फिर मोहल्ले की एक तेरहवीं में विधायक जी आए थे,वो काफी मिलनसार हैं , हमारा भी अब उनसे जान पहचान हो गया है, वो जहां मिलते हैं तो बात भी कर लेते हैं,उनको ही वोट देंगे..!


इक्कीसवीं सदी में होते हुए भी ये सब क्यों लेकिन यह कहना मुश्किल है पर अगर आगामी बिहार चुनाव में भी एक बार जाति और धर्म का चस्मा पहन कर चुनाव हुआ तो बिहार एक गहरे गड्ढे में चला जाएगा..! उन्हें ये तो पता हैं की वो विकास चाहते हैं पर कौन उनको शिक्षा,स्वास्थ्य, रोजगार, और मूलभूत सुविधाएं देगा या दे सकता है ये समझना थोड़ा कठिन हो जाता है..!


धर्म और जाति की चादर विकास को धुआं कर देती हैं । वो आप ही हैं जो सब कुछ बदल सकते हैं और ये अधिकार आपसे कोई भी छीन नहीं सकता..!


मीडिया और सोशल मीडिया

 जिस तरह से मीडिया सुशांत केस कवर कर रहा है, मेरे जैसे युवा जो रोज रोजगार. कॉम पर नौकरी और शिक्षा.कॉम पर जर्नलिज्म और ना जाने कितने कोर्स की फीस देख रहे है,सपना बैठाए है एक अच्छा आईएएस अधिकारी बनने का, एक बेहतर पत्रकार जैसे कि रवीश कुमार, अजित अंजुम, नीलम सिन्हा, अंजना ओम कश्यप जगह हम भी बैठेंगे, वो सब मिनटों में धराशाई हो गया है और फायदा भी क्या होगा अगर रवीश कुमार, अजित अंजुम, नीलम सिन्हा, अंजना ओम कश्यप और रोहित सरदाना बनने के बाद भी हम अपने रिपोर्टर्स को गाड़ियों के आगे पीछे भगवाए..!


कोई फायदा है मीडिया में जाने का, हमे तो समझ नहीं आ रहा, सच्ची पत्रकारिता तो हम यूट्यूब पर चैनल बना के भी कर सकते हैं..!


मीडिया को ऐसे ही नहीं चौथा स्तंभ कहा जाता है,टीवी वालो को अगर बोल दिया जाए कि आपको जनता के दिमाग में ये बात घुसानी ही हैं तो वो हर कीमत पर ऐसा कर देंगे,चार चैनल बदलिए आपको समझ नहीं आयेगा सच क्या हैं..!


2 मिनट रवीश कुमार का वीडियो देखने पर आपको GDP, बेरोजगारी के आंकड़े देख कर समझ में आने लगेगा कि आगे आने वाला गड्ढा कितना गहरा हैं पर जिस भी वक्त आपने आजतक लगाया, मोदीजी की सारी उपल्बधियां सामने की सारी दिक्कतों को छुपा देगी..!


कितना अच्छा दिखता है ना फिल्म स्टार उपर से बिहारी  उसकी लिव इन पार्टनर, बॉलीवुड, ड्रग्स और पता नहीं क्या क्या आरुषि हेमराज हत्याकांड, निठारी कांड के बाद मीडिया को पहली बार इतनी मसालेदार खबर मिली हैं की वो एक लड़की के घर से निकलने से लेकर ऑफिस पहुंचने तक का भी एक प्राइम टाइम शो बना सकता है..!


मुहिम सच दिखाने की नहीं हैं, मुहिम ये है कि ऐसा क्या दिखा दे की सारे रिकॉर्ड्स टूट जाए, अरे भाई सलमान खान की शादी में अभी भी वक्त है..!


जिस खबर को मीडिया एक गोल्डन ऑपर्च्युनिटी की तरह ट्रीट कर रही हैं, वो दरअसल कुछ नहीं एक सामाजिक सच्चाई हैं ।

एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में रेप के आंकड़े असल में उससे काफी ज्यादा होते है जितने बताए जाते हैं, इसका मात्र कारण घर परिवार की इज्जत का मिट्टी में मिल जाना ही होता हैं! ठीक उसी प्रकार, हम मानने को तैयार नहीं हो सकते की एक इंसान अपनी जिंदगी में इतना भी हार सकता है कि वो आत्महत्या कर ले.! बस मीडिया वाले इसी सोच का फायदा उठाते हैं..!


#Journalism

#mediacoverage

#journalists

लाल बहादुर शास्त्री जी सादगी की मूर्ति।

 कुछ ऐसे थे हमारे शास्त्री जी........!


शास्त्री जी ने मां को नहीं बताया था कि वो देश के रेल मंत्री हैं..!

कहा था कि "मैं रेलवे में नौकरी करता हूं"।

वह एक बार किसी रेलवे के कार्यक्रम में आए थे जब उनकी मां भी वहां पूछते-पूछते पहुंची कि मेरा बेटा भी आया है,वह भी रेलवे में है।


लोगों ने पूछा क्या नाम है जब उन्होंने नाम बताया लाल बहादुर शास्त्री तो सब चौंक गए " बोले यह झूठ बोल रही है"!

पर वह बोली, "नहीं वह आए हैं"।।

लोगों ने उन्हें लाल बहादुर शास्त्री जी के सामने ले जाकर पूछा," क्या वही है?"


तो मां बोली "हां वह मेरा बेटा है"

लोग मंत्री जी से दिखा कर बोले "क्या वह आपकी मां है"

तब शास्त्री जी ने अपनी मां को बुला कर अपने पास बिठाया और कुछ देर बाद घर भेज दिया।।


तो पत्रकारों ने उनसे पूछा "आपने मां के सामने भाषण क्यों नहीं दिया"..?


तो वह बोले---

मेरी मां को यह नहीं पता कि मैं रेलमंत्री हूं।। अगर उन्हें पता चल जाएगा तो वह लोगों की सिफारिश करने लगेगी और मैं कभी मना भी नहीं कर पाऊंगा।..... और उन्हें अहंकार भी हो जाएगा..!


जवाब सुनकर सब सन्न रह गए..!!


"आज कहां गए लोगों की निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले,सच्चे और ईमानदार लोग"..!

लोकतंत्र में नेता नहीं नागरिकों का महत्व.!

 लोकतंत्र में नेता का नहीं नागरिकों का महत्व होता है, लोकतंत्र सरकारों के नही समाज के हित को साधने वाली व्यवस्था है। लोकतंत्र की शक्ति किसी भी देश के नागरिक होते हैं, नेता या राजनैतिक दल नही। 


नागरिकों की प्रतिबद्धता देश के लिए होती है दलों के लिए नही। किंतु जब नागरिक दलों के चश्मे से देश को देखने लगते हैं तब वे दलों के कार्यकर्ता हो जाते हैं। 

यह सत्य है की हर कार्यकर्ता देश का नागरिक होता है, किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि हर नागरिक कार्यकर्ता नही होता। 

कार्यकर्ता दल के हित को ही देश का हित बताता है, इसलिए वो अपनी शक्ति दल को शक्तिशाली बनाने में ख़र्च करता है। किंतु नागरिक दलों के नही, देश के कल्याण के लिए उद्यम करते हैं। 


स्मरण रखने योग्य ये है कि हम किसी भी दल के कार्यकर्ता होने से पहले देश के नागरिक होते हैं। किसी राजनैतिक दल का कार्यकर्ता होने से अधिक गौरवशाली देश का नागरिक होना है। विश्व में हमारी पहचान पार्टी कार्यकर्ता की नही बल्कि भारतीय नागरिक की है। इसलिए हमें अधिक सजग रहना होगा क्योंकि नागरिकों का चाल, चरित्र, चिंतन देखकर ही दुनिया उस देश के बारे में अपनी धारणा बनाती है। 


याद रखिए- जैसे नागरिक वैसे नेता, जैसे नेता वैसा देश और जैसा देश वैसे नागरिक। व्यवस्था का यह चक्र नागरिकों से शुरू होकर नागरिकों पर ही समाप्त होता है, इसलिए लोकतंत्र नेताओं का नही नागरिकों का तंत्र होता है....!