कभी आपके ज़ेहन में सवाल आया है कि इंसान कपड़े क्यों पहनता है? आख़िर इंसान भी दूसरे जानवरों की तरह एक प्राणी ही तो है. फिर जब बाक़ी जानवर कपड़े नहीं पहनते तो आख़िर इंसान ने ऐसा करना क्यों शुरू कर दिया? इसके कई जवाब हो सकते हैं लेकिन जो प्रमुख वैज्ञानिक कारण है वह है सर्दी और गर्मी से बचने के लिए अन्य कारणों में खूबसूरत दिखना शामिल हो सकता है परंतु धीरे धीरे व्यक्ति के वस्त्र उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग माने जाने लगे जैसे पुरुषों के वस्त्र अलग और स्त्रियों के वस्त्र अलग। इससे वस्त्रों का लैंगिक निर्धारण होने लगा। ब्राह्मण को धोती में तो क्षत्रिय को पगड़ी में दिखाया जाने लगा इससे समाज में वस्त्रों का जातिगत बटवारा हुआ , तो वही दूसरी तरफ शादीशुदा स्त्रियां साड़ी में और कुवारी सलवार सूट में रहेगी यह अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक अवधारणा बनती गई अर्थात वस्त्रों से कालांतर में वैवाहिक स्थिति का भी निर्धारण होने लगा.! इतना ही नहीं वस्त्रों का निर्धारण मौसम के आधार पर भी होने लगा अगर सर्दी हैं तो स्वेटर का उपयोग किया जाएगा और यदि गर्मी है तो टीशर्ट से काम चल जाएगा। परंतु हमारे पूर्वजों ने कभी नहीं सोचा होगा कि जिन वस्तुओं को पर्यावरण और भौगोलिक कारणों से अपनाया गया वह कभी व्यक्ति की धार्मिक पहचान भी बन जाएंगे । हमे यह समझने की आवश्यकता है कि यूरोपियन लोग कोट पहनते हैं क्योंकि वहां सर्दी अधिक होती है वहीं भारतीय लोग धोती और कुर्ता पहनते हैं क्योंकि कर्क रेखा के अधिक निकट होने से हमारे यहां गर्मी की अधिकता रहती हैं राजस्थानी लोगों ने तो इस गर्मी से बचने के लिए साफा पहनना शुरू कर दिया ताकि सिर को अत्यधिक गर्मी और लू से बचाया जा सके यह बात और है कि साफा आज शादियों का प्रतीक बनकर रह गया है! हमें यह भी याद रखना चाहिए कि किसी धर्म का कोई रंग नहीं है क्योंकि धर्म रंगों से उच्च और वह जीवन जीने का सलीका है मुसलमानों ने हरा रंग रेगिस्तान में हरियाली के अभाव में अपनाया तो हिंदुओं ने श्वेत वस्त्र गर्मी से बचने के लिए और रंगीन वस्त्र अत्यधिक मात्रा में उत्सवों त्योहारों एवं बाहरी हस्तक्षेप और सामंजस्य से अपनाया..! अगर बात करें हाल ही में मुस्लिम महिलाओं के हिजाब विवाद की तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान के रेगिस्तान की तरह मुस्लिम कौम भी अरब के रेगिस्तान से संबंध रखती है जहां पर चलने वाली रेतीली आंधियों से सिर और आंखों को बचाने के लिए केवल स्त्रियां ही नहीं पुरुष भी ऊपर से नीचे ढके हुए रहते हैं यह बात और है कि स्त्री और पुरुषों के लिए क्रमशः कृष्ण और श्वेत वस्त्र निर्धारित कर दिए गए या यूं कहें यह परंपरा बन गई । अब यह सोचने वाली बात है कि जिस प्रकार से घुंघट प्रथा हिंदू धर्म का मूल तत्व ना होकर एक सामाजिक परंपरा थी उसी प्रकार से हिजाब भी अरब की भौगोलिक आवश्यकताओं के हिसाब से सही थी परंतु अब जब भारतीय परिवेश में जिस प्रकार से घुंघट प्रथा के बिना काम चल सकता है उसी प्रकार से कम से कम सार्वजनिक और सरकारी स्थलों स्कूलों और कॉलेजों में यूनिफॉर्म ड्रेस कोड लागू रहना चाहिए चाहे वह किसी भी धर्म का व्यक्ति हो हां यदि कोई मुस्लिम महिला यह पहनना चाहे तो यह उसका व्यक्तिगत अधिकार होना चाहिए जो उसके घर तक उसी प्रकार से सीमित हो जिस प्रकार से घुंघट प्रथा सीमित है। सरकार और माननीय न्यायालय को भी इस प्रकार के मुद्दों का निपटारा उसी प्रकार से करना चाहिए जिस प्रकार से संविधान के आधार पर सबरीमाला मंदिर के प्रवेश का निर्णय लिया गया ताकि कानून और संविधान के समक्ष सभी सामान बने रहें जब हम एक पंथनिरपेक्ष देश की बात करते हैं और लोकतंत्र के हिमायती परिवेश का निर्माण करना चाहते हैं तो हमें भगवा अथवा किसी भी धार्मिक पहचान बन चुके रंगो वाले वस्त्रों को शिक्षा संस्थानों में प्रवेश से रोकना होगा क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो शिक्षा का मूल उद्देश्य गर्त में चला जाएगा और शिक्षा संस्थान केवल धार्मिक और राजनीतिक क्रीड़ा स्थली बन जाएंगे। जिससे अंततः इस देश में विद्वानों की जगह विक्षिप्त पैदा होंगे और हम केवल नालंदा और तक्षशिला की कहानियां सुनाते हुए दिखाई देंगे जिनका वास्तविक जगत से कोई लेना-देना नहीं होगा.! बेहतर होगा वस्त्रो को हिंदू मुसलमान का मुद्दा ना बनाकर तन ढकने की आवश्यकता बनाया जाए.!
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