Saturday, October 1, 2022

कुछ ऐसे थे हमारे शास्त्री जी.......

 कुछ ऐसे थे हमारे शास्त्री जी...............


उत्तर भारत में, गंगा की गोद में पैदा हुए लाल बहादुर शास्त्री की। वह देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने। संघर्षों की भट्ठी में तप कर सोना हुए, शास्त्रीजी का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ। पिता एक स्कूल शिक्षक थे. पर, शास्त्रीजी केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया. मां ने तीनों बच्चों को पाला-पोसा. शास्त्रीजी कुशाग्र थे। पढ़ाई के प्रति ललक ऐसी कि जेठ की झुलसाती गर्मी में भी कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर स्कूल जाते थे। आर्थिक कठिनाइयों से जूझकर उन्होंने अपनी पढाई पूरी की. भादो की बाढ़ में उफनती गंगा को पार कर कॉलेज जाने के कई प्रसंग लोक मानस में मशहूर हैं। शास्त्रीजी की महज सोलह वर्ष की आयु थी जब वह, गांधीजी के आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ असहयोग आंदोलन में शामिल हुए। देश गुलामी की जंजीरों से निकले इसके लिए. उन्होंने अंगरेजी शासन के खिलाफ कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया। करीब सात वर्षों तक विभिन्न जेलों में बंदी रहे. 1946 में जब अंतरिम सरकार का गठन हुआ, तो उन्हें उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। जल्द ही वे गृह मंत्री के पद पर भी आसीन हुए. उनकी कर्मठता और दूरदर्शी नीतियों की चर्चा दिल्ली तक पहुंची. उन्हें 1951 में दिल्ली बुलाया गया. देश के विकास में योगदान देने के लिए बड़ी भूमिका निभाने के लिए वे दिल्ली आये, केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री बने, परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री। हर मंत्रालय में अपनी छाप छोड़ी. बुनियादी ढ़ांचे को मजबूत किया। 


वह जब रेल मंत्री थे तो, एक रेल दुर्घटना हुई. कई लोग मारे गए थे. शास्त्रीजी ने इस दुर्घटना के लिए खुद को नैतिक रूप से जिम्मेदार माना. रेलमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. देश की सियासत में ऐसा पहली बार हुआ. संसद में उनकी सरहना हुई. तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने संसद में कहा कि ‘उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी.’ रेल दुर्घटना पर संसद में लंबी बहस चली. शास्त्रीजी का जवाब देते हुए कहा; ‘शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूं. यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं हूं लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूं.’ बाद के दिनों तो शास्त्रीजी ने अद्भुत सांगठनिक क्षमता का परिचय दिया.!


एक प्रसंग यह है कि शास्त्री जी ने मां को नहीं बताया था कि वो देश के रेल मंत्री हैं..!

कहा था कि "मैं रेलवे में नौकरी करता हूं"।

वह एक बार किसी रेलवे के कार्यक्रम में आए थे जब उनकी मां भी वहां पूछते-पूछते पहुंची कि मेरा बेटा भी आया है,वह भी रेलवे में है।

लोगों ने पूछा क्या नाम है जब उन्होंने नाम बताया लाल बहादुर शास्त्री तो सब चौंक गए " बोले यह झूठ बोल रही है"!

पर वह बोली, "नहीं वह आए हैं"।।

लोगों ने उन्हें लाल बहादुर शास्त्री जी के सामने ले जाकर पूछा," क्या वही है?"

तो मां बोली "हां वह मेरा बेटा है"

लोग मंत्री जी से दिखा कर बोले "क्या वह आपकी मां है"

तब शास्त्री जी ने अपनी मां को बुला कर अपने पास बिठाया और कुछ देर बाद घर भेज दिया।।

तो पत्रकारों ने उनसे पूछा "आपने मां के सामने भाषण क्यों नहीं दिया"..?

तो वह बोले--- मेरी मां को यह नहीं पता कि मैं रेलमंत्री हूं।। अगर उन्हें पता चल जाएगा तो वह लोगों की सिफारिश करने लगेगी और मैं कभी मना भी नहीं कर पाऊंगा।..... और उन्हें अहंकार भी हो जाएगा..! जवाब सुनकर सब सन्न रह गए..!!

आज कहां गए लोगों की निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले,सच्चे और ईमानदार लोग..! 


पंडित नेहरु के निधन के बाद वह जब प्रधानमंत्री बने, तो उन्हें कांटों भरा ताज मिला देश, सरहद से लेकर, खेतों तक संकट से जूझ रहा था, देश में भुखमरी के हालात थे। शास्त्रीजी ने कहा कि देश का हर नागरिक एक दिन का व्रत करे, तो भुखमरी खत्म हो जाएगी। खुद शास्त्रीजी नियमित व्रत रखा करते थे और परिवार को भी यही आदेश था, प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने गांधीवादी तरीके से विकास के रास्ते की तलाश की गांव-गांव जाना लोगों से मिलना किसानों की बात करना सुनील शास्त्री की किताब 'लाल बहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी' में शास्त्रीजी के जीवन से जुड़े कई आत्मीय प्रसंग हैं उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि उनके पिता सरकारी खर्चे पर मिली कार का प्रयोग नहीं करते थे। एक बार उन्होंने (सुनील शास्त्री ने) अपने पिता की कार चला ली, तो शास्त्रीजी ने किलोमीटर का हिसाब कर पैसा सरकारी खाते में जमा कराया. उनका पूरा जीवन ऐसे प्रेरक प्रसंगों से भरा रहा है उनकी ईमानदारी, उनकी शुचिता के कई प्रसंग मिलते हैं।

 

वह जब देश के प्रधानमंत्री बने, तो उनके पास खुद का कोई घर नहीं था और ना ही खुद की एक कार. एक प्रसंग है- शास्त्रीजी ने जब कार खरीदने के लिए सोचा, तो उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे. खाते में सिर्फ 7 हजार रुपए थे, जबकि कार की कीमत 12000 रुपए थी. ऐसे में उन्होंने बैंक से 5 हजार रुपए का लोन लिया. पर, लोन लेने के एक साल बाद ही उनका निधन हो गया। इंदिराजी ने उनके लोन को माफ करने की पेशकश की.  पर, शास्त्रीजी की पत्नी ललिताजी ने उनकी बात को सहजता से नकारते हुए कहा कि किस्तें वह ही भरेंगी। शास्त्रीजी के निधन के चार साल बाद तक ललिताजी ने कार की ईएमआई भरी. लोन चुकता किया शास्त्रीजी की वह कार आज भी दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में रखी हुई है। 


आज सोचता हूं तो लगता है कि आखिर किस मिट्टी के बने थे, कैसा उद्दात्त चरित्र था कैसे लोग थे। सत्ता के अहम पद पर रहते हुए भी जीवन अत्यंत सादगी, विनम्रता और मूल्यों के साथ जीना!


शास्त्रीजी जैसे लोग उसी संस्कृति को बढ़ानेवाले, विलक्षण लोगों में से हुए, उन्होंने रास्ता चुना, बिल्कुल ऋषियों की तरह, संघर्ष का, निर्माण का देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को व्यवस्थित करने, संविधान को प्रतिष्ठित करने और क्रियान्वित करने का. आदर्श मूल्यों को स्थापित करने का.!


आज क्षेत्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जो लोग लोहिया की बात करते रहे, उन्होंने खुले रूप से अपने परिवार को प्रश्रय दिया. जिन्होंने लोहिया की बात नहीं की, जो नयी चेतना की राजनीति करने दक्षिण में आयें, उनलोगों के परिवार के डेढ़-दो सौ की संख्या में रिश्तेदार राजनीति में छा गए।


शास्त्रीजी, जैसे राजनेता मूल्यों की राजनीति, चरित्र की राजनीति और भारत की जो श्रेष्ठ परंपरायें रही हैं उनके पुंज हैं। ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने न परिवार को बढ़ावा दिया, न कभी धन- संपत्ति एकत्र की ये दोनों मानक हैं। तो कम से कम आज के दिन राजनीति करनेवाले हर आदमी को चाहें वह किसी दल का हो, किसी विचारधारा का हो, इनसे ऊर्जा-प्रेरणा लेनी चाहिए.!